02अप्रैल 2018
हे मृगनयनी, प्राणप्यारी
हे कौमुदी , हे मनोमुग्धकारी
जो तुम होती साथ,
तो हर शब्द, राग भैरवी होते।
भले ही रोटी होती सूखी
पर हम साथ मे सुखी होते।
हे रत्नजडिते, हे कमलनयनी
है प्राणवल्लभे, हे रस की स्त्रोतस्विनी
जो तुम होती साथ तो,
पतझड़ भी वसंत सा लगता।
सुवासित होती सारी प्रकृति,
श्वेत भी एक रंग सा लगता।
प्यार के वे ढाई अक्षर,
कभी अंतर्मुखी नहीं होते
जो तूम होती साथ तो ,
हर शब्द राग भैरवी होते।
हे मृगनयनी, प्राणप्यारी
हे कौमुदी , हे मनोमुग्धकारी
जो तुम होती साथ,
तो हर शब्द, राग भैरवी होते।
भले ही रोटी होती सूखी
पर हम साथ मे सुखी होते।
हे रत्नजडिते, हे कमलनयनी
है प्राणवल्लभे, हे रस की स्त्रोतस्विनी
जो तुम होती साथ तो,
पतझड़ भी वसंत सा लगता।
सुवासित होती सारी प्रकृति,
श्वेत भी एक रंग सा लगता।
प्यार के वे ढाई अक्षर,
कभी अंतर्मुखी नहीं होते
जो तूम होती साथ तो ,
हर शब्द राग भैरवी होते।
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