Thursday, 30 April 2015

---दिखता है बस मरघट---

---दिखता है बस मरघट---



दिखता है बस मरघट, दिखता है बस मरघट||

कल तक थी जो धूप सुनहरी,
तीक्ष्ण ताप अब देती है|
अंतर्मन में आग लगी है,
बाहर भी दुःख देती है||
कल तक जो बारिश की बुँदे,
मन को सुख पहुचती थीं|
जो बाहर और अंतर्मन का,
ताप शांत कर जाती थीं||
इनसे बचने को अब नहीं है सिर पर छत|

दिखता है बस मरघट, दिखता है बस मरघट||

इस भूखंड को उलट पलट कर,
सृष्टि ने कैसा खेल रचा|
भवन नगर विध्वंस हो चले,
अब केवल भूखंड बचा||
अब मातम के दौर चलेँगे,
नहीं हसेगा कोई अब|
रुदन और क्रन्दन ही होगा,
मृत्यु यहाँ नाचेगी जब||
चील और कौव्वों का होगा केवल यहाँ पे जमघट||

दिखता है बस मरघट, दिखता है बस मरघट||

भूत गया है बीत,
थीं जिसमें लाखों लाशें और रुदन|
छोड़ उसे देखें इस पल को,
करें नव युग का सृजन||
टूटी हुई कड़ी को जोड़ें,
जाति पाति के भेद को छोड़ें|
नगरों को अब पुनः बसायें,
मानवता की शपथ न तोड़ें||

जब हम होगें एक तो टल जाएगी बाधा विकट||

नहीं बचेगा मरघट, नहीं बचेगा मरघट||

फिर पसरेगी हरियाली,
ना चुभेगी अब बारिश और धूप|
होगी छत जब सबके सिर पर,
फैलेगी तब शांति अनूप||
जब हम करेगें मिल कर सेवा,
नहीं रहेगा दुःख निकट|

नहीं बचेगा मरघट, नहीं बचेगा मरघट||

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