कैसा है यह दम्भ
प्रजा का या अपनी शक्ति का,
हो विवेक से हीन सभी ने खो बैठी शुचिता है,
यहां पनपने वाली केवल क्षुद्र मानसिकता है।
भय तो हो गया भस्म ,
हो गयी भस्म शालीनता भी।
न रही कोई मर्यादा अब,
हिल गयी धर्म की यहां नींव।
मुह को सी कर बैठे हैं सब,
न शब्द कोई प्रस्फुटित यहां।
या तो कायार हो या अबोध,
या हुई मृत्यु अंकुरित यहां।
कैसा है यह पाखण्ड
धर्म का वृथा राष्ट्र भक्ति का।।
कैसा है यह दम्भ
प्रजा का या अपनी शक्ति का।।
स्त्री की लाज बचाने को
करो कोई तो प्रण,
ये तो है एक राजसभा,
नहीं तो होगा रण।
पशु भी करता है अपनो का रक्षण,
ऐसा भी क्या प्रण,
नारी की लाज बचाने को
अब लो कोई तो बाण,
करो कोई संधान।
प्रजा का या अपनी शक्ति का,
हो विवेक से हीन सभी ने खो बैठी शुचिता है,
यहां पनपने वाली केवल क्षुद्र मानसिकता है।
भय तो हो गया भस्म ,
हो गयी भस्म शालीनता भी।
न रही कोई मर्यादा अब,
हिल गयी धर्म की यहां नींव।
मुह को सी कर बैठे हैं सब,
न शब्द कोई प्रस्फुटित यहां।
या तो कायार हो या अबोध,
या हुई मृत्यु अंकुरित यहां।
कैसा है यह पाखण्ड
धर्म का वृथा राष्ट्र भक्ति का।।
कैसा है यह दम्भ
प्रजा का या अपनी शक्ति का।।
स्त्री की लाज बचाने को
करो कोई तो प्रण,
ये तो है एक राजसभा,
नहीं तो होगा रण।
पशु भी करता है अपनो का रक्षण,
ऐसा भी क्या प्रण,
नारी की लाज बचाने को
अब लो कोई तो बाण,
करो कोई संधान।
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