रे निर्मोही दुःशाषन,
रे चीर हरण करने वाले।
इस स्थूल प्रकृति का क्षण में,
मान हनन करने वाले।
कुरुवंशी मर्यादा का,
क्या तुझको अब भान नहीं है?
पितामह और कुरुराज का,
तुझको सम्मान नहीं है।
कहलायेगा कुल कलंक
क्या तुझको अहसास नहीं है।
तू भी है क्या कुरुवंशी,
मुझको विश्वास नहीं है।
हे कुरुश्रेष्ठ पितामह,
क्यों? तुम भी मौन खड़े हो।
कैसी है यह भीष्म प्रतिज्ञा,
क्यों पाषाण बने हो।
क्या प्रत्यंचा ढीली है और
क्या तुरीन में बाण नहीं।
या हो अब तुम रक्तहीन
क्या अब शरसंधान नहीं।
मौन हो क्यों गुरु द्रोण,
क्या अब तुम शक्ति हीन ही बैठोगे।
शस्त्रधारि हे मुनि क्या अब तुम,
ज्ञान का अपने त्याग करोगे।
काका विदुर तात श्री भी हैं,
भरी सभा में मौन।
इस अबला के रक्षण हेतु,
अब आएगा कौन।
गांधारी माँ और कुंती माँ,
तुम ही मुझे बचाओ।
त्यागो सब श्रृंगार अभी,
और शस्त्र कहीं से लाओ।
कहने को तो पांचाली हुँ,
रक्षित हुँ मैं पाँच वरों से।
भीम सेन के भुज के बल से,
और गांडीव शरों से।
सब के सब हैं मौन,
सभा में सन्नाटा पसरा है।
सुनकर के यह आर्तनाद
कुरुराष्ट्र भी मौन खड़ा है।
क्या यह पौरुषहीन राष्ट्र
एक लाज बचा पायेगा,
या यह खुद ही आज यहाँ
अपनी इज़्ज़त लुटवायेगा।
सुन तू हे निर्लज्ज, निरंकुश
मेरुहीन अज्ञानी।
इस सृष्टि में सदा रहा,
ना कोई अमर अभिमानी।
लगता यहां सभी अंधे हैं,
नहीं सिर्फ राजाधिराज
सभी नपुंसक हो बैठे हैं,
नहीं किसी को कोई लाज।
एक स्त्री के चीर हरण का,
साक्षी है कुरुराष्ट्र आज।
खो गय शीलता आंखों से,
कुत्सित है अब सारा समाज।
रे चीर हरण करने वाले।
इस स्थूल प्रकृति का क्षण में,
मान हनन करने वाले।
कुरुवंशी मर्यादा का,
क्या तुझको अब भान नहीं है?
पितामह और कुरुराज का,
तुझको सम्मान नहीं है।
कहलायेगा कुल कलंक
क्या तुझको अहसास नहीं है।
तू भी है क्या कुरुवंशी,
मुझको विश्वास नहीं है।
हे कुरुश्रेष्ठ पितामह,
क्यों? तुम भी मौन खड़े हो।
कैसी है यह भीष्म प्रतिज्ञा,
क्यों पाषाण बने हो।
क्या प्रत्यंचा ढीली है और
क्या तुरीन में बाण नहीं।
या हो अब तुम रक्तहीन
क्या अब शरसंधान नहीं।
मौन हो क्यों गुरु द्रोण,
क्या अब तुम शक्ति हीन ही बैठोगे।
शस्त्रधारि हे मुनि क्या अब तुम,
ज्ञान का अपने त्याग करोगे।
काका विदुर तात श्री भी हैं,
भरी सभा में मौन।
इस अबला के रक्षण हेतु,
अब आएगा कौन।
गांधारी माँ और कुंती माँ,
तुम ही मुझे बचाओ।
त्यागो सब श्रृंगार अभी,
और शस्त्र कहीं से लाओ।
कहने को तो पांचाली हुँ,
रक्षित हुँ मैं पाँच वरों से।
भीम सेन के भुज के बल से,
और गांडीव शरों से।
सब के सब हैं मौन,
सभा में सन्नाटा पसरा है।
सुनकर के यह आर्तनाद
कुरुराष्ट्र भी मौन खड़ा है।
क्या यह पौरुषहीन राष्ट्र
एक लाज बचा पायेगा,
या यह खुद ही आज यहाँ
अपनी इज़्ज़त लुटवायेगा।
सुन तू हे निर्लज्ज, निरंकुश
मेरुहीन अज्ञानी।
इस सृष्टि में सदा रहा,
ना कोई अमर अभिमानी।
लगता यहां सभी अंधे हैं,
नहीं सिर्फ राजाधिराज
सभी नपुंसक हो बैठे हैं,
नहीं किसी को कोई लाज।
एक स्त्री के चीर हरण का,
साक्षी है कुरुराष्ट्र आज।
खो गय शीलता आंखों से,
कुत्सित है अब सारा समाज।
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